Wednesday 15 November 2017

शाम थी

शाम थी हल्की रौशनी भी ,
सोया भी था शहर आधा
कुछ कर रहें थे गुफ़्तगू
शामिल था मैं भी भीड़ में
तन्हाई का गीत गाता हुआ
मुड़ कर कौन देखे पीछे
हर किसी का चेहरा था
मायूस पड़ा
शब्दों से बयां करने को मजबूर
थे सब
सबके जहन में  बसा था रब
उम्मीद का दामन पकड़े हर कोई ,
कर रहा था गुहार ख़ुदा से
ऐ ख़ुदा बस इतना देना ,
हर किसी को सम्मान दे सकूँ
जो भी आये घर मेरे
ख़ाली हाथ ना उसे कभी
भेजूँ !


नवीन आशा


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