Sunday 11 November 2018

पत्र : अंतिम यात्रा से पहले (भाग - 3 )




तुमने अच्छा किया चलो प्रमाण दिया गहराई का , जीवन में जीतना दूर भागना चाहो करीब उतना ही होते जाता है इंसान | मुझे यक़ीन तो था शक़ की गुंजाईश नहीं रही | मैं जानता हूँ तुम चाहकर भी नहीं कहोगी , तुम्हारे स्वभाव से परिचित हूँ | आज स्वप्न में देखा था तुमको तुम्हारे आँगन में... मैं चुपचाप आँखों को नीचे किए मंद -मंद मुस्कुरा रहा था और तुम सूर्य के प्रकाश की तरह मेरे सम्पूर्ण शरीर में ऊर्जा का संचार कर रही थी | जानती हो उदास रहूँ या दर्द से कराहता रहूँ , ग़र उस पल एहसास तुम्हारे होने का होता तो हर जंग छोटी लगती है | दिया जो जल रही है उम्मीद की , ग़र तुम्हें न पाया होता जीवन में तो कब की बुझ गयी होती | सिकवा -शिकायत करो पर अपनी मुस्कराहट यूँ -ही बरक़रार रखना , क्योंकि वो मुस्कुराहट मेरी आत्मबल है....मेरी आत्मबल कमजोर हो ये मैं कदापि नहीं चाहूंगा ! विपत्ति जब आती है तभी अपनों का पता चलता है... विगत 15 दिनों से ख़ुद से लड़ रहा हूँ... स्वभावतः मैं हंसमुख मिजाज का व्यक्ति हूँ | ख़ुद को संभालना भी आता है | अगर कुछ बुरा भी लगता फिर भी मुस्कुराता हूँ , पर एक जगह कमजोर हूँ वो तुम्हारी मुस्कुराहट है.... क्योंकि मेरी मुस्कुराहट तुम पर टिकी है | सुबह जब नींद खुली तो अधकच्चे नींद में तुम्हारा चेहरा झलक रहा था , वो चेहरा जो जड़ी का काम करती है | वो चेहरा जिसे सामने से तो देखा नहीं -निहारा नहीं , पर मन की गहराई से हर रोज डुबकी लगाता हूँ | सुबह एक कविता भी गढ़ी तुमपर , तुम-तक मेरी हर कविता पहुँचती है.... आज सादगी भरा वो चेहरा फिर याद आ बैठा , मन ऊहापोह में हो चला धमक तो धमक है | याद आया तुम्हारा झुमका , जिसे निहारते ना जानें मैं ख़ुद को असहज महसूस कर रहा था.... वो असहजता प्रेम की असीम पड़ाव की , जिसमें  प्रीतम से बिछराव है..विरह है , पर इन सबों के बीच एक बात छुपी है ' धमक ' तुम्हारे दिल में मेरे लिए...इस बात का पता चलना | साँसों के संग टकराव हो चली है , चर्चा जो शुरू किया तुम्हारा... मजबूर हूँ , मैं तुमको छोड़ दूँ ये तो होने से रहा ! तुम भूल जाओ भले मुझको... मैं बेइंतहा प्रेम में हूँ... जिसे बता नहीं सकता... तुम्हारी खूबसूरती अक्सर मुझे जगा  रखती है... पर जानती हो एहसास जब तुम्हारा पाता है दिल मेरा... मानों गंगा में डुबकी लगा रहा हो ऐसा महसूस करता है ! सामने पेड़ पर गिलहरी बैठी है , पूछ रही सवाल मुझसे... तुम दर्द सहते हो कैसे... तुम हर वक्त मुस्कुराते कैसे... मैं मुस्कुराया और बोल बैठा ' हैरान मत हो दोस्त... नाक की बाली के बल जीता हूँ... हाँ वहीँ नाक की बाली जो तुम्हारी रौनक को दुगुना करती है... पर तुम्हें क्या... तुम तो खबर पा-कर  भी बेखबर हो ! मैं जानता हूँ, तुम भी दूर से महसूस करती हो एहसास को... वो एहसास जो चुम्बक की तरह एक दूजे को खींच रही... जानती हो हाल में तेरे घर के आसपास गया था.... सोचा तुम नहीं तो तेरा शहर सही... वो शहर जहाँ पहुँच ख़ुद को स्वर्ग में पाता हूँ...वो शहर जहाँ की हर गलियों से गुज़रते , तेरी खुशबु की आहट पाता हूँ.... बहुत हुआ अनजान मत बनो अब बातों को समझ कर , एहसास ग़र पहुँच रहा हो....तो मेरी धड़कनों की धाप पर जो मनोव्यथा चल रही है.... जानों और शाम होने से पहले अपना एहसास बयान करना.... सच कहता हूँ , तुम बिना मैं नहीं... शायद एहसास जो है तेरे मन के भीतर....उसमें मेरे बिना तुम नहीं ! इंसान कष्ट में हो तो सबसे ज्यादा दुःखी माँ - पिता      होते है... मैं ये बात इसलिए बताना चाहता हूँ क्योंकि मेरे जीवन में माता -पिता का स्थान शीर्ष पर है | विगत 16 वर्ष मेरे जीवन का सबसे कठिन दौर रहा , ग़र उनका आशीर्वाद न संग होता तो अस्तिव कब का मिट गया होता मेरा | आज तुम्हें लग रहा होगा , तारीफ़ करने वाला अचानक गम में क्यों डूब  गया | बताता चलूँ ग़र गम में होता तुम्हें याद कर यूँ नहीं लिखता | जानती हो 2001 मुस्कराहट का वो अंतिम वर्ष था , जिसमें सच्ची हँसी हँसी  थी... वो हँसी आज भी निकलती है जब मेरा दोस्त संग होता है , नाम नहीं लूंगा उसका.... वो हर पल मेरे संग है | पता नहीं आज गुस्सा आ रहा ,  क्यों कैसे किसलिए ? धड़कन पर बोझ सा लग रहा , क्या तुम्हें भी ऐसा लग रहा..... पलकों पर आँसू की बुँदे है , पर ना जानें तुम्हारी यादों से धीरे -धीरे मिट रही..... लगता है एहसास तुमतक पहुँच रही !!




नवीन आशा



Monday 17 September 2018

वक़्त और हम

आज प्रस्तुत है कवियत्री मैथिली द्वारा रचित ' वक़्त और हम ' ! मैथिली वर्तमान में राँची से वकालत पढ़ रही है !




लम्हा तो गुज़र गया
दास्तां छोड़ गया पीछे
अपने
मुमकिन नहीं भुला दे
दास्तां को
न इजाज़त वापस लम्हें
को जी लें
इल्तज़ा ख़ुद से है बस
इतनी
सफर में आगे बढ़ जाये
खट्टी - मिट्ठी यादों संग
जुड़ा सफर का किस्सा
आँखों को नीची जो की
मैंने
ज़माना खिलखिला हँस
पड़ा
वक़्त ने कहा
तू क्यों है अब तक यूँ
खड़ा
भुला दे जो नसीब में है
नहीं
कोई तोहफ़ा होगा ज़िंदगी का
आगे कहीं
क्यों आँसू बहाए बीते किस्सों
पर
चलो आँखों में सजाते है कुछ
हसीं सपने
चलो बढ़ते है राहों में आगे
गुज़रा वक़्त पीछे छोड़ के
अपने !






मैथिली


Monday 3 September 2018

पत्र : अंतिम यात्रा से पहले (भाग 2 )

ख़ामोशी छा गई है मन के भीतर , वो ख़ामोशी जिसमें तुम्हारी यादों की महक है ! तुम दूर 500 किलोमीटर हो , कहाँ पता नहीं..पर पल-भर में ही तुम्हें अपने एहसास में पाता हूँ ! तुम मेरे लिए ख़ुदा की फ़रिश्ता हो... वो फ़रिश्ता जो सामने नहीं आता...पर सपनों को पंख लगा देता है ! मेरे तकदीर की चाभी  हो... तुम मानोगी नहीं , ये जानता हूँ.... अक़्सर सोचता हूँ , मैं मुस्कुराहट को बनाने में ग़र कामयाब हूँ....तो उस मुस्कुराहट की आहट तुम ही हो ! मेरी डिमेरिट है कि मैं सब व्यक्ति  को ख़ुद सा समझ लेता हूँ ! मैं सोचता हूँ , मैं अगर किसी इंसान के बारे में बुरा  भला नहीं बोलता तो वो  भी मेरे बारे में नहीं बोलते होंगे !  कहते है जिसमें हारने की क्षमता होती है , उसमें जरूर जीतने का जूनून होता है ! गुस्सा उस वक्त आता है , जब किसी इंसान को मैं कुछ पूछने पर सत्यता से रु-बरु  कराता हूँ... और वो ये समझता है कि मैं भावना में बह  उसे बता डाला तो वो गलत सोचता है !  मैं इसलिए बताता हूँ क्योंकि मेरी आँखों में पानी है.... ! इंसान को तकलीफ़ होना स्वभाभिक है , हुआ.... !!! तुम बात करती तो आज बहुत रोता... पता है मैं दिल की गहराई से तुमको पसंद करता हूँ ! तुम विश्वास करती हो , मिले बिना जानता हूँ !  पता तो है तुम जानती हो...कि मुझे पसंद हो ! गुस्सा से लाल हो गई थी तुम , पर तुम्हें  अच्छा तो लगा होगा ! मेरी किस्मत भी गतिमान है.... वो बादल की तरह बदलती रहती है ! वो बादल जो कभी लगती है , कभी छट जाती है ! आज तुम्हें बहुत मिस कर रहा , ग़र तुम तक एहसास पहुँचे तो स्वप्न बन ही पर....मेरे सिर पर हाथ फेर जाना ! मैं अकेला महसूस करता हूँ , तो एक तुम्हारी याद ही है जो मुझे हँसने को उत्सुक  करती है ! सच्चा प्रेम करता हूँ , वो प्रेम जो मेरी आँखों में झलकता है.... तुम एक बार बात करो...मुझे जी-भर  रोना है ! हिम्मत किया तुम्हें टोकने का  , पर तुम अनसुना कर रही ! मैं जानता हूँ ,ज़ेहन में तुम्हारे भी हूँ.... सोचती तुम भी हो ! तुम लायक हो , मुझसे बेहतर हो...शायद इसी खातिर तुम मेरी प्रेरणा बनती जा रही हो ! आज सुबह ना जाने क्यों , होली याद आ गयी... जानती हो वो होली खास थी , इसलिए क्योंकि मौन भले था आँगन में...पर तुम सामने तो थी ! मेरे जीवन में कष्ट के दौर बहुत चले , ख़ुद के लिए लड़ना पड़ा ! धमक तुम्हारी जब से हुई मेरे वीरान -एकांत जीवन में...तन्हाई भी मुस्कुराती है... जानती हो तुम भी अपने जगह ठीक हो , मैं तुम्हे सलाम करता हूँ ! मैं बहुत रोता हूँ आजकल , दर्द से कराहता हूँ... उम्मीद करता हालचाल कोई अपना...कोई करीबी लेगा... पर शायद उम्मीद ? बारिश हो रही है ,हवा का झोंका बह रहा... उस झोंकें  में तुम्हारा एहसास पा रहा...सच कहता हूँ , साँसों में अजीब सी हलचल हो बैठी ! तुम ग़र मेरी  भावना को समझ रही हो , तो बस खोज कर लेना... अगर तुम भी भरोसा नहीं करोगी तो सोचों मेरा जीना बेकार है ! आज ख़ुद को ग़र मुकाम पर लाने को उत्सुक हूँ तो उसकी प्रेरणा तुम हो... सिर्फ तुम !!



नवीन आशा



Wednesday 25 July 2018

पत्र:अंतिम यात्रा से पहले ( भाग 1 )



सुबह उठा जब ख़ुद को अस्त-व्यस्त पाया ! पर चेहरा ख़िला और तरोताज़ा लग रहा था , अलार्म बज चूकी  थी  ! हर सुबह अलार्म बजी ही रहती  है ! अजीब होता है , चाह की पहली चुस्की लेना... मानों वह चाय की कप भी मुझे यादों के समुंदर में बहा ले जाती है ! आज कहीं पढ़ा " Winners who cared for nothing but..Goals " , लगा होगा आख़िर मुझको क्या हुआ... क्योंकि मैं आज गोल की बात करने लगा ! सच बयान करता हूँ , चाय की प्याली जब होंठों को छूई.... तो उस दफा उसके गर्म होने का एहसास... ना जानें मेरे उम्मीद को गहराई प्रदान कर डाला ! ग़र कहूँ तो जीतने को उत्साहित किया.... वह जीत जिसको जीतने के बाद एहसास और मेरे रूह दोनों चैन के संग.... अमरत्व की प्राप्ति कर सकेंगे ! मेरे अमर होने से प्रेम अमर होगा ! शायद यह पढ़ रो रहा हो मन तेरा , पर अमर जो हो दिल में बस जाए.....वहीँ तो प्रेम की सच्ची परिभाषा है !!चेहरा देखा तेरा , यकीन नहीं कर रहा था मन मेरा ! जानती हो , आज धड़कन भी साथ दे रहा था ! तुम खुश नज़र आ रही थी , मुस्कुराते बहुत ख़ूब लगती हो ! मैं दूर रह भी , तुझमें उलझता चला गया हूँ ! डरता हूँ , ग़र तुम रूठ बैठी तो क्या ज़माने से लड़ सकूँगा ! तुम बिन सुना लगता , तुम पक्षी नहीं जो आ उड़ जाओ.... तुम वो एहसास का समुंदर हो , जिसके पास ना होने से भी...मैं उसके धड़कनों की धाप सुन सकता हूँ ! हर सुबह जब मन , ख़ुद को नहीं पाता अपने भीतर... तो वो समझ जाता है वो आज दूर कहीं किसी मन को शांत कर चाह की पहली चुस्की ले रहा होगा ! 
"
नाक में बाली शोभता है तुमको " 
" भक्क तुम ना कुछो कहते रहते हो "
" अरे नहीं सच्चे कह रहें है... भौजाई भेजी थी तुम्हारी एगो फोटो...का कहे सजी-धजी से सुनर लग रही थी " 
" का बात है ? आज ज्यादा तारीफ़ नहीं हो रहा ! कुछ विचार है का "
" अरे पाँच वर्ष से मन के आँगन में प्रतिमूर्ति बनी हो... मिलना -जुलना तो होता नहीं ! बस तुम्हारी बात भी नहीं कर सकता अब ! "
" रूठते काहे हो.. तुम बिना मैं कहाँ...बस डरती हूँ , इतना प्रेम करने वाला मिला है...क्या मैं उस काबिल हूँ "
" इतना भी नहीं रूठा पगली , कि तुम ऐसी बात करो.... तुम ही तो हो जिसके ख़ातिर ख़ुद से लड़ता हूँ....ख़ुद से आगे बढ़ता हूँ ! ग़र तुम और तुम्हारा एहसास ना होता तो क्या मैं ज़िंदा होता.... 
आज गुज़र रहा था ननिहाल से तेरे ! वहीँ जगह जहाँ से गुज़रते तुम्हारा एहसास नेपथ्य से झकझोर रहा था ! मन उमंग संग झूम रहा था , तुम्हारी पायलों की झंकार कानों में गूँज रही थी ! तालाब के उस महार से ,जैसे तुम ताक रही हो.... बर्फीली हवाओं में चादर का काम कर रही , तुम्हारा ताकना ! जब भी उस गली से गुज़रता हूँ , ख़ुद को शार्ट सर्किट का शिकार होने से नहीं रोक पाता ! तुम्हारे दरवाजे पर जो तार का पेड़ है , उस तार के पत्तों का झुकना...तुम्हारी लटों की याद दिलवा रही थी , जिसे ऊँगली में उलझा अक़्सर तुम निहारती हो ! तुम जरूरत-सी महसूस होती हो.... तुम्हारे ननिहाल में आज सूखता देखता जब कपड़ों का मेला.... एहसास हुआ तुम शायद वहीँ हो..... बस मेरा शायद यक़ीन में बदल गया...और तार के पेड़ नीचे तुम खड़ी मिली... मैं वहाँ आम के पेड़ को निहार रहा था.... जो तुम्हारे आने से बस ख़िला-ख़िला लग रहा था !!
हौसला बुलंद करना तुमने ही तो सिखाया | मैं उदास रहा करता था , तुम ना¬-जानें कब किस वक्त जीवन की राहगीर बन बैठी | हवा का तेज़ झोंका , हल्की बूंदा-बाँदी ... उसमें तुम्हारी याद | यह जब लिख रहा हूँ , चेहरा मुस्कुरा रहा है | आज दिमाग थका लग रहा , पर मन तुम्हारी ओर चल पड़ा है | वादियों में हो जानता हूँ , पहाड़ों के बीच अगर कोई गूंज सुनाई दे ....समझना याद किया है किसी अपने ने ..... वो अपना जो पास नहीं ...जो मिलता नहीं , पर शायद कोई ऐसा दिन नहीं जो याद ना करता हो | सुबह आज आँख खुल नहीं रही थी , अचानक अचंभित हो बैठा .... जैसे लगा कोई करीबी कानों मे आ कह रहा हो .....उठो आठ बजने को है | उस पल गुस्सा नहीं आया , शायद जान चूका था नेपथ्य से वो तुम थी | पिछले कुछ दिनों से इस कदर उलझा हूँ , तुम्हें याद करने का फुर्सत नहीं .... पढ़ गुस्सा आया .... चलो भई मजाक तो बनता है ना | रात की बात है , याद नहीं कौन-सा दिन था .....अरे हाँ याद आया ..... सोमवार ..... किसी ने पूछा खुद को कैसे संभालना सिखा ........ मैं मुस्कुराया और कहा इक ऐसी अनकही पहेली से जो , तस्वीर बन जीवन में उभरी और शायद मन की गहराइयों को राह दिखाते चल रही है | मुस्कुरा रही हो , जानती हो जब व्यथित होता हूँ .... या खुद को अकेला पता हूँ ..... उस वक्त जिसे सबसे ज्यादा याद करता हूँ ....... वो अनकही पहेली ,  जिसकी तार तुम से  जुड़ी है |


नवीन आशा 


Thursday 19 July 2018

“ एक बूंद “


जो बूंद ठहरी पत्तों पर ,
उसको तो गिरना ही था |
गलती क्या उन पत्तों की ,
जिसकी सतह हो वजूद उसका |
क्या गलती उस बूंद की ,
सामने जिसके कोई रास्ता ना था |
आ हवा उड़ा ले गयी ,
फिर मिल गयी मिट्टी में जा आखिर |
जो बूंद ठहरी .............................
उसको तो .................................... |
हकीकत ठीक उलट थी ,
बूंद गिरी उस बीज पर जो
लेटी थी मृत्यु-सय्या पर |
जी उठी वो बूंद की सोहबत में ,
किस्मत जिसके  संग था जुड़ा |
मौसम मुस्कुरा उठा बूंद की
कुर्बत पर
हर पत्ता खिलखिला के अब तो
बूंद को गिरा देता नीचें
फिर कहता जो चाहा वो मिला
नहीं
जो मिला वो सोचा नहीं
जहाँ को जरूरत थी इक पेड़ की ,
चलो एक बूंद ने जिंदा कर दिया |
जो बूंद ठहरी ............................
उसको तो गिरना ......................... |


कवियत्री  मैथिली       


(  कवियत्री मैथिली रचित कविता “ एक बूंद “ |  मैथिली वर्तमान में वकालत की पढ़ाई कर रही है | )


तुलनात्मक अध्ययन

 मेरे शब्द आजकल कम हो गए , लगता है जैसे राह में हम अकेले  हो गए  तुलनात्मक अध्ययन की राह में  रख दिया है हमको  कहो मेरी मुस्कान पर भी अब हर ...