Tuesday 27 September 2016

दिल की घंटी बज जाए


आज जो कविता प्रेषित कर-रहा , मेरे प्रिय अंशु के दुआरा सुझाया विषय पर केन्द्रित है |
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,मैं सैर पर निकला
वादियों-पर्वतों के बीच
प्रकृति के सोन्दर्य निहारते,
एक युवती को देखा
बला की सुंदर थी वो
पर उदाहरण थी सादगी की
न थी कोई आभूषण को पहनें
न थी पहन सृंगार का चोला
सभी वादियों मे थे मशरूफ़
बेकरार-बन देखने को
कुदरत का नज़ारा
पर मैं व्याकुल था
धड़कन मे उसे बसाने को
था दूर यूँ बैठा
कि हकीकत समझ-न पाए
पर इशारों-इशारों मे ही-सही
दिल की घंटी बज जाए
तभी न-जानें बंद नयनों को
खोल क्यों बैठा
न-जानें औझल उसे कर-बैठा
वो परी नहीं
स्वप्न थी
जो तन्हाई के आलम मे भी
“ आशा “ संग जीना सिखाया ||

नवीन कुमार “आशा “

Thursday 15 September 2016

जब प्रवास करते थे



प्रिय
“ ग्रेटर-नॉएडा जब प्रवास करते थे तुम , जब मालूम होता गाँव की यात्रा पर आ-रहे हो आनंदित हो जाता मन मेरा “ | रोमांचित हो नृत्य करने को जी करता | सब-जब कहा करते “ रेलगाड़ी लेट है ? “ | मन मायूस हो चलता , पर सोचता इतना कष्ट तो बनता है | आधी-रात कहूँ या फिर ऐसा कि ढाई बजे भी लगता जैसे सुबह की पहली किरण मिली हो , ऐसा लगता जब तुम्हारी चंचलता से ओत-प्रोत आवाज सुनने को मिलता | गद्गद हो चलता उस-पल मन मेरा | इतफ़ाक तो हो न सकता , इक रिश्ता-सा लगता | जब सुबह मुस्कुराते  सब – लोगों से मिलते-जुलते तो ऐसा लगता जैसे ख़ुद मिल रहा |  कम-दिन ही रहते ,पर वर्षो सुकून से जीने का जरिया दे जाते | न जाने यह सोच नयनों  मे नमी की अनभूति महसूस कर रहा | समय बीतता गया , तुम दिल्ली-एनसीआर की फिज़ाओ मे खुद को ढालते चले गए | जब कभी तुम्हारे बदलाव की बातें सुनता , ख़ुशी से फुल जाता | एक अलग रिश्ता सा बन रहा ,पर नाम न सूझ रहा ? | तुम बीमार हो चले , आँगन के एक कोणें मे पिता आँसू बहा रहे ,माँ भगवती को पुकार रही ....फिर-भी बुत-बन सब देख रहा था | बैचैन था तेरे चंचलता को कायम रखने के लिए | सभी की पुकार कुबूल हुई ,सही सलामत तुम ठीक हो वापिस आ गए | आज-भी नहीं भुला , चौकी पर एक कॉपी ले-कर जब तुमने पहली दफा कविता उकेरा ..... सब याद है | मछली की सुगंध जिस-पर तुम दौड़े मिट्टी के चूल्हें के पास चिपक जाते | भागने का नाम न लेते , एक-पल सोचने को मजबूर हो जाता कि बेबकुफ़ हो | उसी-पल फिर समझ जाता , नहीं तुम चंचल , साफ़ दिल के हो .... | प्रश्न फिर खुद से , तो वो इंसान जिसे लगाव था आखिर वो आज मुड़ कर देखता क्यों नहीं ? | सीढियों पर बैठ जो हर-पल नौटंकी कर सब को गुदगुदाता ,वो उधर देखता तक नहीं ?| आखिर मेरी क्या गलती ? | बचपन के हर-लम्हों को जिया जिसने खुल-कर मेरे संग , आज वो देख मुस्कुरता तक नहीं | जब खेल-खेल मे चोट लगती ,सब मारनें दौड़ते ....मैं मायूस हो ठीक होनें की दुआ करता , आज क्या हुआ जो सिर झुका के कुबूल तक न करता | जातना हूँ रात के अंधेरों मे चुपचाप निहारते हो ..... किसी-की आहट सुन दिशा बदल लेते हो ...फिर क्यों जब बगल से गुज़रे तो नज़रअंदाज कर डाला ? | यकीन है कि ऐसा-कर खुश तुम भी न हुए होगे .......वो आम का पेड याद ही होगा , जहाँ-न –जानें कितनें-ही रातों को फुट-फुट तुमनें रोया .......|
फिर कुछ-पल बाद तुम मेरे पास-ही आ-कर सोया ........ कैसे भूल गए एक-पल मे , महीनों गुज़र गए पर तुमनें मुड़-कर न हाल-चाल पूछा ....... जानता हूँ तुम दूर हो ....पर इतना-भी दूर नहीं की दिल से दूर कर सको |

तुम्हारा एहसास
नाम- घर .........


( नवीन कुमार “आशा “)

Monday 5 September 2016

सैर करना है ...........का हुआ


सैर करना है ...........का हुआ,  लड़ाई-झगड़ा करना है का ? |  चलिए एगो इंसान से मिलाते – जुलाते है आप-सभी को | चरम नाम सुने है , अरे किसी का नाम नहीं बल्कि उल्लास का वो समय जिसका अंत नहीं | हाँ – ना मे लिपटा हूँ, सोच रहा कहा से शुरू करूँ | श्री गणेश करता हूँ ...... जय श्री गणेश |
सागर जी , यह नाम याद आया जिस समय ग्लास से भरे दूध ने लबों को छुआ | उनसे पहली मुलाक़ात अखबार के जरिये हुआ | जब बड़े-बड़े अक्षरों मे लिखा “ गाँव का छोड़ा , समुन्द्र्र पार छोड़ेगा अपनी छाप “ | अखबार देखते ही जी चाहा “ मिलना-मिलाना हो जाए “ | सोच रहे होंगे कि मैं पगला गया अखबार पढ़ कर ,तो कह दूँ : हाँ | सागर जी भी एक लेखक जो ठहरें |
बारिश आज छोड़ कल का नाम नहीं ले रही थी , जब सुदूर देहात मे बसे उनके घर पड़ पहुँचा |  कोई भीड़ न , न कोई घर के आजू-बाजू | आवाज दी “ लेखक सागर जी है ? “
तभी अचानक घने बालों वाला , धोती और कंधे पर तौलिया लिए एक आदमी निकला “ कुर्सी दी , चला गया दो मिनिट रुकिए कहकर “
मन-ही-मन सोचने लगा “ बड़े लोगों की बड़ी बात ? “
फिर दो मिनिट के बाद वहीँ शख्सियत , हाथ मे थाली लिए जिस-पर पानी-चाह  | कहा – ग्रहण कीजिए |
दंग सा रह गया , फिर पूछा : सागर जी है क्या ?
उन्होंने कहा : कहाँ से ,और कौन है आप ?
सरल भाषा मे जवाब दिया “ मेरा नाम उन्मुक्त लाल , दरभंगा से आया हूँ “
आदमी मुस्कुराया “ कहा मुक्त हो जाए उन्मुक्त बाबू , आप उसी सागर से बात कर रहे है “
अचम्भित हो आँखों को मलते हुए पूछा “ आप सागर जी ? “
उन्होंने  कहा “ हाँ “
फिर वो आसमान की ओर देख कुछ बड-बड़ाने लगें “ बारिश का मौसम , ख़ुशनुमा माहौल ,होंठो पर मुस्कान , मुँह के भीतर पान | अलग-सा है | इतफ़ाक तो नहीं ? | “
मैंने टोका – श्रीमान ,क्या बोल रहे है ?
सागर जी : दो लाइन छुट गया था ,वो मन-के अंदर रच डाला | मुस्कुरानें लगे फिर |
अब रोमांच बढ़-सा गया , उनसे जी-भर बात करने के लिए |
सिलसिला बढ़ा , पूछा : बधाई हो | आप रोमांचित है “ अमेरिका जाने को “ ?
उन्होंने कहा : धन्यवाद | एक सवाल पहले मेरा जवाब आपका ?
पूछें श्रीमान : मैंने कहा
सागर जी : क्या आप रोमांचित थे , मुझसे मिलने हेतु ? क्या आप रोमांचित थे मेरी रचनाओं को पढ़कर ?
मैंने कहा : श्रीमान , रोमांच था आप-से मिलने का | हाँ , रचना पढ़ी पर सत्य यह है कि कम | कम से मतलब कि जो रचना अखबार मे , आपके साक्षात्कार के संग छपी थी |
वो दबी मुस्कान संग बोले : आपके-ही उत्तर मे , मेरा भी उत्तर छिपा है |
फिर भी जवाब दे रहा “ गाँव के कमरे मे कविता-कहानी लिखनेवाला , मातृभाषा की सेवा करने जा रहा “ उनके आवाज मे दर्द की अनुभूति हुई |
प्रश्न किया : आप गाँव से निकल सीधे विदेश जात्रा पर जा रहे है उत्सुक है ?
सागर जी : सफलता के प्रति कौन उत्सुक नहीं होता , उत्सुक हूँ वायुयान की ,अरे का कहते है हेरोप्लन ................ ठहाका लगाने लगे |
पुनः : अरे माफ़ करे , निकलना है पटना | ओ हेरोप्लन पकड़ना है | हम-दोनों हँसने लगे |
आज सागर जी के नाम , चर्चित लोगों मे जानी -जाती है | पर एक समय था ,जो पहचान बनाने के खातिर कमरों मे बंद रहा करते थे | तानों की बरसात झेलते थे | जैसा उन्होंने बताया |
सागर जी आज-भी विदेश जात्रा पर निकले , जैसे गाँव के चौराहों पर जाया करते ................ कुर्ता- धोती ,गमछा और चेहरें पर दबी मुस्कान |
मेरी इस सैर से एक-बात का एहसास हुआ “ राह , पहचान कठिन जरुर पर मुसाफ़िर चाहें तो मंजिल पाना   न मुश्किल “ |


नवीन कुमार “आशा “
दरभंगा

तुलनात्मक अध्ययन

 मेरे शब्द आजकल कम हो गए , लगता है जैसे राह में हम अकेले  हो गए  तुलनात्मक अध्ययन की राह में  रख दिया है हमको  कहो मेरी मुस्कान पर भी अब हर ...