Wednesday 25 July 2018

पत्र:अंतिम यात्रा से पहले ( भाग 1 )



सुबह उठा जब ख़ुद को अस्त-व्यस्त पाया ! पर चेहरा ख़िला और तरोताज़ा लग रहा था , अलार्म बज चूकी  थी  ! हर सुबह अलार्म बजी ही रहती  है ! अजीब होता है , चाह की पहली चुस्की लेना... मानों वह चाय की कप भी मुझे यादों के समुंदर में बहा ले जाती है ! आज कहीं पढ़ा " Winners who cared for nothing but..Goals " , लगा होगा आख़िर मुझको क्या हुआ... क्योंकि मैं आज गोल की बात करने लगा ! सच बयान करता हूँ , चाय की प्याली जब होंठों को छूई.... तो उस दफा उसके गर्म होने का एहसास... ना जानें मेरे उम्मीद को गहराई प्रदान कर डाला ! ग़र कहूँ तो जीतने को उत्साहित किया.... वह जीत जिसको जीतने के बाद एहसास और मेरे रूह दोनों चैन के संग.... अमरत्व की प्राप्ति कर सकेंगे ! मेरे अमर होने से प्रेम अमर होगा ! शायद यह पढ़ रो रहा हो मन तेरा , पर अमर जो हो दिल में बस जाए.....वहीँ तो प्रेम की सच्ची परिभाषा है !!चेहरा देखा तेरा , यकीन नहीं कर रहा था मन मेरा ! जानती हो , आज धड़कन भी साथ दे रहा था ! तुम खुश नज़र आ रही थी , मुस्कुराते बहुत ख़ूब लगती हो ! मैं दूर रह भी , तुझमें उलझता चला गया हूँ ! डरता हूँ , ग़र तुम रूठ बैठी तो क्या ज़माने से लड़ सकूँगा ! तुम बिन सुना लगता , तुम पक्षी नहीं जो आ उड़ जाओ.... तुम वो एहसास का समुंदर हो , जिसके पास ना होने से भी...मैं उसके धड़कनों की धाप सुन सकता हूँ ! हर सुबह जब मन , ख़ुद को नहीं पाता अपने भीतर... तो वो समझ जाता है वो आज दूर कहीं किसी मन को शांत कर चाह की पहली चुस्की ले रहा होगा ! 
"
नाक में बाली शोभता है तुमको " 
" भक्क तुम ना कुछो कहते रहते हो "
" अरे नहीं सच्चे कह रहें है... भौजाई भेजी थी तुम्हारी एगो फोटो...का कहे सजी-धजी से सुनर लग रही थी " 
" का बात है ? आज ज्यादा तारीफ़ नहीं हो रहा ! कुछ विचार है का "
" अरे पाँच वर्ष से मन के आँगन में प्रतिमूर्ति बनी हो... मिलना -जुलना तो होता नहीं ! बस तुम्हारी बात भी नहीं कर सकता अब ! "
" रूठते काहे हो.. तुम बिना मैं कहाँ...बस डरती हूँ , इतना प्रेम करने वाला मिला है...क्या मैं उस काबिल हूँ "
" इतना भी नहीं रूठा पगली , कि तुम ऐसी बात करो.... तुम ही तो हो जिसके ख़ातिर ख़ुद से लड़ता हूँ....ख़ुद से आगे बढ़ता हूँ ! ग़र तुम और तुम्हारा एहसास ना होता तो क्या मैं ज़िंदा होता.... 
आज गुज़र रहा था ननिहाल से तेरे ! वहीँ जगह जहाँ से गुज़रते तुम्हारा एहसास नेपथ्य से झकझोर रहा था ! मन उमंग संग झूम रहा था , तुम्हारी पायलों की झंकार कानों में गूँज रही थी ! तालाब के उस महार से ,जैसे तुम ताक रही हो.... बर्फीली हवाओं में चादर का काम कर रही , तुम्हारा ताकना ! जब भी उस गली से गुज़रता हूँ , ख़ुद को शार्ट सर्किट का शिकार होने से नहीं रोक पाता ! तुम्हारे दरवाजे पर जो तार का पेड़ है , उस तार के पत्तों का झुकना...तुम्हारी लटों की याद दिलवा रही थी , जिसे ऊँगली में उलझा अक़्सर तुम निहारती हो ! तुम जरूरत-सी महसूस होती हो.... तुम्हारे ननिहाल में आज सूखता देखता जब कपड़ों का मेला.... एहसास हुआ तुम शायद वहीँ हो..... बस मेरा शायद यक़ीन में बदल गया...और तार के पेड़ नीचे तुम खड़ी मिली... मैं वहाँ आम के पेड़ को निहार रहा था.... जो तुम्हारे आने से बस ख़िला-ख़िला लग रहा था !!
हौसला बुलंद करना तुमने ही तो सिखाया | मैं उदास रहा करता था , तुम ना¬-जानें कब किस वक्त जीवन की राहगीर बन बैठी | हवा का तेज़ झोंका , हल्की बूंदा-बाँदी ... उसमें तुम्हारी याद | यह जब लिख रहा हूँ , चेहरा मुस्कुरा रहा है | आज दिमाग थका लग रहा , पर मन तुम्हारी ओर चल पड़ा है | वादियों में हो जानता हूँ , पहाड़ों के बीच अगर कोई गूंज सुनाई दे ....समझना याद किया है किसी अपने ने ..... वो अपना जो पास नहीं ...जो मिलता नहीं , पर शायद कोई ऐसा दिन नहीं जो याद ना करता हो | सुबह आज आँख खुल नहीं रही थी , अचानक अचंभित हो बैठा .... जैसे लगा कोई करीबी कानों मे आ कह रहा हो .....उठो आठ बजने को है | उस पल गुस्सा नहीं आया , शायद जान चूका था नेपथ्य से वो तुम थी | पिछले कुछ दिनों से इस कदर उलझा हूँ , तुम्हें याद करने का फुर्सत नहीं .... पढ़ गुस्सा आया .... चलो भई मजाक तो बनता है ना | रात की बात है , याद नहीं कौन-सा दिन था .....अरे हाँ याद आया ..... सोमवार ..... किसी ने पूछा खुद को कैसे संभालना सिखा ........ मैं मुस्कुराया और कहा इक ऐसी अनकही पहेली से जो , तस्वीर बन जीवन में उभरी और शायद मन की गहराइयों को राह दिखाते चल रही है | मुस्कुरा रही हो , जानती हो जब व्यथित होता हूँ .... या खुद को अकेला पता हूँ ..... उस वक्त जिसे सबसे ज्यादा याद करता हूँ ....... वो अनकही पहेली ,  जिसकी तार तुम से  जुड़ी है |


नवीन आशा 


Thursday 19 July 2018

“ एक बूंद “


जो बूंद ठहरी पत्तों पर ,
उसको तो गिरना ही था |
गलती क्या उन पत्तों की ,
जिसकी सतह हो वजूद उसका |
क्या गलती उस बूंद की ,
सामने जिसके कोई रास्ता ना था |
आ हवा उड़ा ले गयी ,
फिर मिल गयी मिट्टी में जा आखिर |
जो बूंद ठहरी .............................
उसको तो .................................... |
हकीकत ठीक उलट थी ,
बूंद गिरी उस बीज पर जो
लेटी थी मृत्यु-सय्या पर |
जी उठी वो बूंद की सोहबत में ,
किस्मत जिसके  संग था जुड़ा |
मौसम मुस्कुरा उठा बूंद की
कुर्बत पर
हर पत्ता खिलखिला के अब तो
बूंद को गिरा देता नीचें
फिर कहता जो चाहा वो मिला
नहीं
जो मिला वो सोचा नहीं
जहाँ को जरूरत थी इक पेड़ की ,
चलो एक बूंद ने जिंदा कर दिया |
जो बूंद ठहरी ............................
उसको तो गिरना ......................... |


कवियत्री  मैथिली       


(  कवियत्री मैथिली रचित कविता “ एक बूंद “ |  मैथिली वर्तमान में वकालत की पढ़ाई कर रही है | )


तुलनात्मक अध्ययन

 मेरे शब्द आजकल कम हो गए , लगता है जैसे राह में हम अकेले  हो गए  तुलनात्मक अध्ययन की राह में  रख दिया है हमको  कहो मेरी मुस्कान पर भी अब हर ...