प्रिय
“ ग्रेटर-नॉएडा जब प्रवास करते थे तुम , जब मालूम होता गाँव की यात्रा
पर आ-रहे हो आनंदित हो जाता मन मेरा “ | रोमांचित हो नृत्य करने को जी करता |
सब-जब कहा करते “ रेलगाड़ी लेट है ? “ | मन मायूस हो चलता , पर सोचता इतना कष्ट तो
बनता है | आधी-रात कहूँ या फिर ऐसा कि ढाई बजे भी लगता जैसे सुबह की पहली किरण
मिली हो , ऐसा लगता जब तुम्हारी चंचलता से ओत-प्रोत आवाज सुनने को मिलता | गद्गद
हो चलता उस-पल मन मेरा | इतफ़ाक तो हो न सकता , इक रिश्ता-सा लगता | जब सुबह मुस्कुराते
सब – लोगों से मिलते-जुलते तो ऐसा लगता
जैसे ख़ुद मिल रहा | कम-दिन ही रहते ,पर
वर्षो सुकून से जीने का जरिया दे जाते | न जाने यह सोच नयनों मे नमी की अनभूति महसूस कर रहा | समय बीतता गया
, तुम दिल्ली-एनसीआर की फिज़ाओ मे खुद को ढालते चले गए | जब कभी तुम्हारे बदलाव की
बातें सुनता , ख़ुशी से फुल जाता | एक अलग रिश्ता सा बन रहा ,पर नाम न सूझ रहा ? |
तुम बीमार हो चले , आँगन के एक कोणें मे पिता आँसू बहा रहे ,माँ भगवती को पुकार
रही ....फिर-भी बुत-बन सब देख रहा था | बैचैन था तेरे चंचलता को कायम रखने के लिए
| सभी की पुकार कुबूल हुई ,सही सलामत तुम ठीक हो वापिस आ गए | आज-भी नहीं भुला ,
चौकी पर एक कॉपी ले-कर जब तुमने पहली दफा कविता उकेरा ..... सब याद है | मछली की
सुगंध जिस-पर तुम दौड़े मिट्टी के चूल्हें के पास चिपक जाते | भागने का नाम न लेते
, एक-पल सोचने को मजबूर हो जाता कि बेबकुफ़ हो | उसी-पल फिर समझ जाता , नहीं तुम
चंचल , साफ़ दिल के हो .... | प्रश्न फिर खुद से , तो वो इंसान जिसे लगाव था आखिर
वो आज मुड़ कर देखता क्यों नहीं ? | सीढियों पर बैठ जो हर-पल नौटंकी कर सब को
गुदगुदाता ,वो उधर देखता तक नहीं ?| आखिर मेरी क्या गलती ? | बचपन के हर-लम्हों को
जिया जिसने खुल-कर मेरे संग , आज वो देख मुस्कुरता तक नहीं | जब खेल-खेल मे चोट
लगती ,सब मारनें दौड़ते ....मैं मायूस हो ठीक होनें की दुआ करता , आज क्या हुआ जो
सिर झुका के कुबूल तक न करता | जातना हूँ रात के अंधेरों मे चुपचाप निहारते हो
..... किसी-की आहट सुन दिशा बदल लेते हो ...फिर क्यों जब बगल से गुज़रे तो नज़रअंदाज
कर डाला ? | यकीन है कि ऐसा-कर खुश तुम भी न हुए होगे .......वो आम का पेड याद ही
होगा , जहाँ-न –जानें कितनें-ही रातों को फुट-फुट तुमनें रोया .......|
फिर कुछ-पल बाद तुम मेरे पास-ही आ-कर सोया ........ कैसे भूल गए एक-पल
मे , महीनों गुज़र गए पर तुमनें मुड़-कर न हाल-चाल पूछा ....... जानता हूँ तुम दूर
हो ....पर इतना-भी दूर नहीं की दिल से दूर कर सको |
तुम्हारा एहसास
नाम- घर .........
( नवीन कुमार “आशा “)
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