Monday 17 September 2018

वक़्त और हम

आज प्रस्तुत है कवियत्री मैथिली द्वारा रचित ' वक़्त और हम ' ! मैथिली वर्तमान में राँची से वकालत पढ़ रही है !




लम्हा तो गुज़र गया
दास्तां छोड़ गया पीछे
अपने
मुमकिन नहीं भुला दे
दास्तां को
न इजाज़त वापस लम्हें
को जी लें
इल्तज़ा ख़ुद से है बस
इतनी
सफर में आगे बढ़ जाये
खट्टी - मिट्ठी यादों संग
जुड़ा सफर का किस्सा
आँखों को नीची जो की
मैंने
ज़माना खिलखिला हँस
पड़ा
वक़्त ने कहा
तू क्यों है अब तक यूँ
खड़ा
भुला दे जो नसीब में है
नहीं
कोई तोहफ़ा होगा ज़िंदगी का
आगे कहीं
क्यों आँसू बहाए बीते किस्सों
पर
चलो आँखों में सजाते है कुछ
हसीं सपने
चलो बढ़ते है राहों में आगे
गुज़रा वक़्त पीछे छोड़ के
अपने !






मैथिली


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